Plum Cultivation: हरियाणा के इस किसान की आलूबुखारा खेती को देखकर सब हैरान, आप भी जान लें ये तकनीक
हिसार, Plum Cultivation in Haryana : हिसार का छोटा सा गांव है सुरेवाला। यह चंडीगढ़ रोड पर है। यहां के प्रगतिशील किसान इन दिनों चर्चा में हैं। ये हैं दरवेश पातड़ जिन्होंने हरियाणा में आलूबुखारा की खेती शुरू कर सभी को हैरान कर दिया है। आलूबुखारा (Plum) एक स्वास्थवर्धक रसदार फल है. इसकी खेती उत्तराखण्ड, कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में प्रमुख रूप से की जाती है. इसमें मुख्य लवण, विटामिन, प्रोटीन, कार्वोहाडट्रेट आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।
हरियाणा में आलूबुखारा की खेती
भले ही आपको हैरानी हो, लेकिन ये सच है। पहाड़ों का ये फल अब हरियाणा में भी उगाया जा सकता है। दरवेश पातड़ के फार्म में आलूबुखारा के पेड़ पर आए फूलों को देश कर लगता है जैसे उन पर बर्फ जमी हो। अचानक देखने पर आपको लगेगा की आप कश्मीर में आ गए हों।
कैसे शुरू की आलूबुखारा खेती
दरवेश पातड़ बताते हैं की 2020 में उन्होंने बागवानी विभाग लाडवा की मदद से इसकी पौध हासिल की और सारी जानकारी के बाद इसे 1 एकड़ में लगाया। अगर किसान आलूबुखारा की खेती से अधिकतम और गुणवत्तायुक्त उत्पादन चाहते है, तो इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करनी चाहिए. इसके साथ ही किस्मों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इसके साथ ही दरवेश पातड़ ने फार्म पर आड़ू समेत कई और फल के बाग लगा रखे हैं।
कैसी जलवायु चाहिए
इसकी खेती पर्वतीय आंचल और मैदानी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है. इसके लिए शीतल और गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है, लेकिन इसकी उत्तम खेती समुद्रतल से 900 और 2500 मीटर वाले क्षेत्रों में होती है. ऐसी जगह जहां बसन्त ऋतु में पाला पड़ता हो।
पौध रोपण कब करें
आलूबुखारा की खेती के लिए नवम्बर और फरवरी माह के बीच निर्धारित स्थान पर 1 x 1 x 1 मीटर आकार के 6 x 6 मीटर की दूरी पर गड्डे खोद करना चाहिए, इसके बाद हर गड्डे में 40 किलोग्राम गोबर की खाद मिट्टी में मिलाकर गड्डों में भर देनी चाहिए।
आलूबुखारा की खेती में फल विकास के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए. मैदानी भागों में ग्रीष्म ऋतु में कम से कम 2 से 3 दिन में सिंचाई करना चाहिए. पर्वतीय क्षेत्रों में टपक सिंचाई के माध्यम से जलपूर्ती की जा सकती है।
कटाई-छंटाई जरूरी
इसके पौधों को अच्छा आकार देने के लिए सधाई के लिए उसकी कटाई-छटाई करना आवश्यक है. बता दें कि सेलिसिना वर्ग की कई किस्में ऊपर की जगह अलग-बगल में फैलती हैं, इसलिए ऐसी किस्मों की सधाई खुला मय विधि से करनी चाहिए।
कीट रोकथाम
पत्ते मोड़ने वाली माहू- इस कीट के शिशु और वयस्क पत्तियों का रंग चूस लेते है, जिससे पंत्तियां विकृत होकर मुड़ और सूख जाती हैं. इसकी रोकथाम के लिए आक्सिडेमेंटान-मिथायल 200 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए।
शल्क (स्केल)- इस कीट की मादा पौधे के तने और शाखाओं पर छोटी गोलाकार घुण्डियों के रूप में दिखाई पड़ती है. यह छोटे शिशु पत्तियों पर स्थिर रह कर रस चूसते हैं. इसकी रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड 600 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़कना चाहिए।
रोग रोकथाम
जड़-सड़न रोग (रूट रॉट)- यह रोग पौधों की जड़ों में सफेद रंग की फफूंदी द्वारा होते है. इससे पौधे धीरे-धीरे कमजोर होते जाते हैं. इसकी रोकथाम के लिए रोगग्रस्त पौधों की जड़ों से मिट्टी हटाकर धूप लगने के लिए खोल दें. इसके साथ ही रोगग्रस्त पौधों की जड़ों से जख्म को साफ करके उसमें फफूंदीनाशक पेस्ट लगाएं. इसके अलावा जड़ों में पानी को न रुकने दें. इसके लिए नालियां बनाएं, बगीचे में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें और खरपतवार को पौधे की जड़ों में न उगने दें।
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जीवाणु धब्बे- इस रोग के लगने पर पत्तियों में छोटे-छोटे धब्बे पड़ जाते हैं. इसकी रोकथाम के लिए पत्तों के गिरने या कलियों के सूखने के समय ज़ीरम या थीरम 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें।
सिलवर लीफ कैंकर- इस रोग में ग्रसित पेड़ों की पत्तियॉ चांदी की तरह धातुई चमक जैसी हो जाती हैं. शाखाओं पर यह फफोलों के रूप में परिलक्षित होती है. पेड़ की छाल का बाह्य भाग कागज की तरह उतर जाता है. इसकी रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट का 2 से 3 छिड़काव 15 दिनों पर करना चाहिए।
भूमि का चुनाव कैसे करें
इसकी खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है, लेकिन जल-निकास की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए. इसके साथ ही 1.5 से 2 मीटर गहरी भूमि खेती के लिए उपयुक्त होती है।
आलूबुखारा की उन्नत किस्में
समुद्र तल से 2000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए सलिसिनावर्ग की प्रमुख किस्में विक्टोरिया, सेन्टारोजा, फर्स्ट प्लम, रामगढ़ मेनार्ड, न्यू प्लम आदि है।
समुद्र तल से 2000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए डोमेस्टिकावर्ग की मुख्य किस्में ग्रीन गेज, ट्रान्समपेरेन्ट गेज, स्टैनले, प्रसिडेन्ट आदि है।
समुद्र तल से 1000 मीटर तक ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए फंटीयर, रैड ब्यूट, अलूचा परपल, हो, जामुनी, तीतरों, लेट यलो और प्लम लद्दाख आदि किस्में हैं।
आलूबुखारा की प्रमुख किस्में
फंटीयर : इस किस्म के फल भारी और आकार में बड़े होते हैं. इनका छिलका गहरा लाल बैंगनी, गूदा गहरे लाल रंग का, मीठा, स्वादिष्ट, सख्त, एक समान मीठा, सुगन्धित, गुठली से अलग होने वाला, फल भण्डारण की अधिक क्षमता वाला होता है।
रैड ब्यूट : इस किस्म के फल मध्यम आकार के होते हैं. यह ग्लोब की तरह और लाल, चमकीली, गूदा पीला, पिघलने वाला, मीठा और सुगंधित, गुठली से चिपके रहने की प्रवृति वाला, सैंटारोजा से 2 सप्ताह पहले मई के अंतिम सप्ताह में पककर तैयार हो जाती है।
टैरूल : इस किस्म के फल मध्यम से बड़े आकार के होते हैं, जो कि गोल, पीले, लालिमा लिए हुए, गूदा पीला, पिघलने वाला, समान रूप से मीठा, अच्छी सुगन्ध वाला, गुठली से चिपका हुआ और सैंटारोजा से 1 सप्ताह बाद में जुलाई के दूसरे सप्ताह में पककर तैयार हो जाती है. इसके पौधे अधिक पैदावार देने वाले होते हैं।
कहां से मिलेगी ट्रेनिंग
हरियाणा के लाडवा में बागवानी विभाग का उप उष्ण कटिबंधीय फल केंद्र है। यहां से किसानों को परामर्श और ट्रेनिंग दी जाएगी। इसके लिए आप यहां डॉ शिवेंदु प्रताप सिंह सोलंकी से संपर्क कर सकते हैं। डॉ शिवेंदु प्रताप सिंह सोलंकी ने बताया कि किसानों की मदद के लिए केंद्र से संपर्क कर सकते हैं। हरियाणा का मौसम आलूबुखारा की खेती के लिए अच्छा है और किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं।