India's First IAS Officer : ये थे भारत के पहले IAS अफसर, जानें कैसे छोड़ा था अंग्रेजों को पीछे
Haryana News post : Satyendranath Tagore : हर बच्चे का सपना है कि वो पप की परीक्षा को पास करे, और हर साल लाखों बच्चे इस परीक्षा की तैयारी भी करते हैं. और परीक्षा को देते हैं लेकिन उनमें से कुछ ही सस ऐसे होते हैं जो अपने मुकाम तक पहुंच पाते हैं।
जो नहीं पास कर पाते वो अपनी तैयारी मे फिर से लग जाते हैं और अपने सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास करते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं। आपके मन में हमेशा ये सवाल आता होगा की आखिर पहला भारतीय IAS अफसर कौन सा था। जी हां आज हम आपको इसी सवाल का जवाब देने आए हैं। जानने के लिए बने रहे हमारी खबर के साथ।
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आपको बताने चले हैं कि सबसे पहले UPSC की शुरूआत सबसे पहले अंग्रजों द्वारा 1854 में की गई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करने वाले सिविल सर्वेंट को पहले कंपनी के निदेशकों द्वारा नामित किया जाता था. इसके बाद लंदन के हेलीबरी कॉलेज में इन्हें ट्रेनिंग के लिए भेजा जाता. यहां से ट्रेनिंग पूरी करने के बाद ही भारत में तैनात किया जाता था.
मगर इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी पर लोगों द्वारा सवाल उठाए जाने लगे की भारत में भी ऐसा हो, इसके बाद ब्रिटिश संसद की सेलेक्ट कमेटी की लॉर्ड मैकाउले रिपोर्ट में एक प्रस्ताव पेश किया गया. इसके तहत ये प्रावधान किया गया कि मेरिट लिस्ट पर एक परीक्षा होगी जिसे पास करने पर उसका चयन होगा। इसी उद्धेश्य से लंदन में 1854 सिविल सेवा का गठन किया गया।
और इसके अगले ही साल से परीक्षा होने लगी। अंग्रेज कभी भी नहीं चाहते थे की कोई भी भारतीय इस सीट तक पहुंचे। सबसे पहले परीक्षा को सिर्फ लंदन में ही कराया जाता था. इसकी उम्र 18 साल से लेकर 23 साल की करी गई थी। भारतीयों को फेल करने के लिए खासतौर से सिलेबस को तैयार किया गया और उसमें यूरोपीय क्लासिक के लिए ज्यादा नंबर रखे गए.
आपको बता दें कि सत्येंद्रनाथ टैगोर ऐसे भारतीय थे जिसने 1864 में पहली बार इस परीक्षा को पास किया। वह महान रबिंद्रनाथ टैगोर के भाई थे. इसके बाद कामयाबी का सिलसिला चल निकला. तीन साल के बाद 4 भारतीयों ने एक साथ यह परीक्षा पास की.
यही नहीं भारतीयों को 50 साल से ज्यादा समय तक इस बात के संघर्ष करना पड़ा कि यह परीक्षा लंदन के बजाय भारत में हो. ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि ज्यादा भारतीय सिविल सर्विस परीक्षा में सफलता हासिल करें. मगर भारतीयों के लगातार प्रयास और याचिकाओं के बाद आखिरकार उन्हें झुकना पड़ा. प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1922 से यह परीक्षा भारत में होनी शुरू हुई.
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